बी. सरोजा देवी: साउथ इंडियन सिनेमा की पहली महिला सुपरस्टार
बचपन से लेकर फिल्मी बुलंदियों और जीवन की हर चुनौती तक की प्रेरणादायक कहानी
भूमिका
भारतीय सिनेमा में अगर कभी उन अदाकाराओं की बात होती है जिन्होंने परदे पर सिर्फ किरदार नहीं निभाए बल्कि नई परिभाषा गढ़ी, तो बी. सरोजा देवी का नाम उस सूची में शीर्ष पर आता है। 1950 और 60 के दशक में जब फिल्म इंडस्ट्री पुरुष-प्रधान मानी जाती थी, तब सरोजा देवी ने अपनी कला, सुंदरता और आत्मविश्वास से हर भाषा के दर्शकों के दिल जीत लिए।
उनका जीवन केवल चकाचौंध और फिल्मों तक सीमित नहीं था — वो एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाकर एक लंबा और गरिमामय करियर बनाया।
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प्रारंभिक जीवन
जन्म और परिवार
बी. सरोजा देवी का जन्म 7 जनवरी 1938 को बेंगलुरु, कर्नाटक में हुआ था। उनके पिता भद्रावती हनुमंथा राव पुलिस विभाग में कार्यरत थे और माँ रामनम्मा एक पारंपरिक गृहिणी थीं। उनकी माँ को शास्त्रीय संगीत और नृत्य का बड़ा शौक था और यही शौक सरोजा देवी में भी आ गया।
कम उम्र में ही उन्होंने भरतनाट्यम की ट्रेनिंग शुरू कर दी थी और स्कूल के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगीं। उनकी आँखों की अभिव्यक्ति और शरीर की लयबद्धता देखकर लोग दंग रह जाते थे।
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फिल्म इंडस्ट्री में कदम: एक संयोग
उस दौर में अभिनय करना हर लड़की का सपना नहीं होता था, खासकर जब परिवार पारंपरिक हो। लेकिन एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में जब उन्हें प्रसिद्ध निर्देशक एच. एल. एन. सिम्हा ने देखा, तो उन्होंने उनके माता-पिता को बहुत मनाकर फिल्म में काम करने की अनुमति दिलवाई।
उनकी पहली फिल्म थी “महाकवि कालिदास” (1955) जो कन्नड़ भाषा में थी। फिल्म सफल रही, लेकिन असली पहचान उन्हें मिली तमिल फिल्म “कल्याणम पन्नियुम ब्रह्मचारी” (1958) से।
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सुपरस्टार बनने की शुरुआत
1959 में एम. जी. रामचंद्रन (एमजीआर) के साथ आई फिल्म “नाडोडी मन्नन” ने उन्हें रातोंरात स्टार बना दिया। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वो तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और हिंदी – चारों भाषाओं की फिल्मों में छा गईं।
उन्होंने देश के महानतम सितारों जैसे:
सिवाजी गणेशन,
राजकुमार,
एन. टी. रामाराव,
दिलीप कुमार,
और एम. जी. रामचंद्रन के साथ काम किया।
उनकी कुछ यादगार फिल्में:
“पैग़ाम” (1959, हिंदी) – दिलीप कुमार के साथ
“कित्तूर चेनम्मा” (1961, कन्नड़) – रानी चेनम्मा का ऐतिहासिक किरदार
“अनबे वा” (1966, तमिल) – एक हल्की-फुल्की रोमांटिक कॉमेडी
“ससुराल” (1961, हिंदी) – जिसने उत्तर भारत में भी उन्हें प्रसिद्ध बना दिया
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उनकी अनूठी स्टाइल और अदाकारी
बी. सरोजा देवी की अलग पहचान बनी उनकी:
आभिजात्य भंगिमा (ग्रेसफुल प्रजेंस)
आंखों से संवाद करने की कला
भारतीय परिधान में ग्लैमर का तड़का
और परंपरागत मगर आत्मविश्वासी महिला के रोल
वो हर महिला के लिए एक आदर्श थीं — संस्कारी, सुंदर, भावनात्मक और साहसी।
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शादी और ब्रेक, फिर वापसी
1967 में उन्होंने श्री हर्षा नामक इंजीनियर से शादी की और कुछ समय फिल्मों से दूरी बना ली। उन्होंने पारिवारिक जीवन को प्राथमिकता दी।
लेकिन 1980 के दशक में उन्होंने माँ और बुज़ुर्ग महिला के किरदारों के साथ वापसी की। उनकी वापसी उतनी ही गरिमामय रही जितनी उनकी सुपरस्टारडम।
उनकी वापसी की कुछ प्रमुख फिल्में:
“थाई मुकांबिकाई” (1982)
“वंश विलक्कु” (1984)
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पुरस्कार और सम्मान
बी. सरोजा देवी ने जो मुकाम हासिल किया वो किसी भी कलाकार के लिए सपना होता है। उन्हें मिले प्रमुख सम्मान:
पद्म श्री – 1969
पद्म भूषण – 1992
कलाईमामणि अवॉर्ड – तमिलनाडु सरकार से
एनटीआर राष्ट्रीय पुरस्कार
फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड
उन्होंने 190 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया – वो भी चार भाषाओं में। इतना बहुपक्षीय और स्थायी करियर शायद ही किसी और अभिनेत्री को मिला हो।
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निजी जीवन और सामाजिक योगदान
1986 में उनके पति श्री हर्षा का निधन हुआ, जो उनके लिए बहुत बड़ा झटका था। फिर भी उन्होंने अपने आप को सामाजिक कार्यों और कला-संस्थानों से जोड़े रखा।
वो नेशनल फिल्म अवॉर्ड ज्यूरी की सदस्य रहीं और कई सांस्कृतिक संस्थानों में योगदान देती रहीं।
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निष्कर्ष
बी. सरोजा देवी केवल एक अभिनेत्री नहीं, एक संस्था थीं।
वो सौंदर्य और गरिमा की मिसाल थीं। उनका जीवन हर युवा को प्रेरित करता है कि अगर प्रतिभा हो और धैर्य से काम लिया जाए, तो कोई भी मंच छोटा नहीं होता।
उन्होंने भारतीय महिला के आदर्श को परदे पर जीवंत किया, और उनके अभिनय ने न केव
ल मनोरंजन किया, बल्कि समाज को दिशा भी दी।
उनकी कहानी आज भी हर उस इंसान को प्रेरित करती है जो सच्चे मेहनत और कला में विश्वास रखता है।
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