सत्यपाल मलिक: एक बागी सोच वाले नेता की कहानी – छात्रसंघ से राज्यपाल तक का सफर
परिचय
सत्यपाल मलिक, भारतीय राजनीति की एक ऐसी शख्सियत रहे हैं, जिनका सफर न केवल लंबा बल्कि बेहद दिलचस्प और उतार-चढ़ाव से भरा रहा। जुलाई 1946 में उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के हिसावड़ा गांव में जन्मे मलिक, न सिर्फ सत्ता के गलियारों में वर्षों तक सक्रिय रहे, बल्कि उन्होंने कई बार स्थापित राजनीतिक रुझानों के खिलाफ खड़े होकर अपने विचारों की मुखरता दिखाई। उन्होंने कांग्रेस, जनता दल, बीजेपी समेत पांच से अधिक दलों का दामन थामा और एक समय अपनी पार्टी भी बनाई। लेकिन उनकी पहचान किसी एक पार्टी से नहीं, बल्कि उनके बागी और स्पष्टवादी रवैये से बनी।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
सत्यपाल मलिक का जन्म एक जाट किसान परिवार में हुआ था। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े मलिक ने मेरठ कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली और फिर एलएलबी किया। पढ़ाई के दिनों से ही उनमें नेतृत्व की झलक दिखने लगी थी। छात्र राजनीति से उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई, जब वे मेरठ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में शामिल हुए।
राजनीतिक सफर की शुरुआत
मलिक ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत भारतीय क्रांति दल से की, जो चौधरी चरण सिंह का गठन था। 1974 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य बने और फिर 1977 में बागपत से लोकसभा सांसद चुने गए। यह वह दौर था जब आपातकाल के बाद जनता पार्टी की लहर चली थी और सत्यपाल मलिक को जनता का समर्थन भी मिला।
1978 में उन्हें प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार में संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए और 1980 के दशक में राजीव गांधी की सरकार में भी सक्रिय भूमिका निभाई।
कभी बनाई थी खुद की पार्टी
हालांकि सत्यपाल मलिक लंबे समय तक कांग्रेस में रहे, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब वे कांग्रेस से खफा होकर खुद की पार्टी बना बैठे। यह मलिक के स्वभाव को दर्शाता है – वे कभी किसी राजनीतिक विचारधारा से बंधे नहीं रहे, बल्कि अपनी बात कहने के लिए वे पार्टी लाइन से हटने में भी नहीं हिचकते थे।
बीजेपी में भूमिका और राज्यपाल की जिम्मेदारियां
1990 के दशक में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए। बीजेपी के वरिष्ठ नेता के रूप में वे राज्यसभा सांसद रहे और पार्टी के विभिन्न संगठनों में जिम्मेदारी निभाई। लेकिन उनकी सबसे चर्चित भूमिका तब सामने आई जब उन्हें 2017 में बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
इसके बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया – और यहीं से शुरू हुआ उनकी सबसे विवादास्पद लेकिन ऐतिहासिक भूमिका का अध्याय।
निष्कर्ष
सत्यपाल मलिक उन नेताओं में शामिल रहे, जो सत्ता में रहकर भी सत्ता के खिलाफ बोलने का साहस रखते थे। उन्होंने कभी खुद को किसी दल, सरकार या विचारधारा की सीमा में नहीं बांधा। उनके जैसे नेता आज की राजनीति में कम ही देखने को मिलते हैं – जो पद की परवाह किए बिना सच बोलने का दम रखते हैं।
उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि राजनीति में सिद्धांतों से समझौता किए बिना भी एक सशक्त और प्रभावशाली सफर तय किया जा सकता है।
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